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उत्तराखंड में गोरखा शासन: एक ऐतिहासिक अध्याय

उत्तराखंड में गोरखा शासन: एक ऐतिहासिक अध्याय

उत्तराखंड में गोरखा शासन: एक ऐतिहासिक अध्याय

प्रस्तावना:

उत्तराखंड का इतिहास हमें उस समय ले जाता है जब गोरखों ने गढ़ राज्यों को हराने के बाद पूरे उत्तराखंड में अपना शासन स्थापित किया। इसका मुख्य कारण था 1790 ई. में चंद वंश के शासकों की कमजोर नेतृत्व।

**गोरखा शासन का काल:**

चंद वंश के शासक महेन्द्र चंद ने 1790 में गोरखों को रोकने के लिए प्रयास किया, लेकिन उन्हें अंत में हराया गया। गोरखे 1790 में आल्मोड़ा के राजधानी में प्रवेश करके चंद के चौमहल में पहुंचे और वहां के साथ उनकी पत्नियों और बेटियों को साथ ले गए।

गोरखों की इस क्रूरता को देखकर लोगों में आतंक बढ़ा और किसी ने भी उनके सामने सिर उठाने का साहस नहीं किया। लोगों के बीच फैले भय का उपयोग करते हुए, गोरखे ने पहले कुमाऊं पर हमला किया और फिर गढ़वाल को जीतकर उसमें अपना छाता शासन स्थापित किया। जो 1816 की एंग्लो-नेपाल युद्ध तक चला।

**गोरखा शासन की क्रूर  प्रशासनिक और न्यायिक यात्रा:**

उत्तराखंड में 25 वर्षों तक गोरखा शासन यमराज के शासन की तरह था। गोरखों की क्रूर प्रशासनिक और न्यायिक अभ्यासों के कारण उत्तराखंड की जनता के बीच हमेशा डर का माहौल बना रहा। जनता पर कई प्रकार के कर हड़ताल किए गए और जो टैक्स नहीं दे सकते थे, उन्हें पकड़कर बलपूर्वक बेचा जाता था।

गोरखे केवल अपने दो ब्राह्मणों का सम्मान करते थे – पाण्डेय और उपाध्याय। इसके अलावा, उपनिवेशित और न्याय को छोड़कर सभी को दंडबद्ध करके काम कराया गया। उनके शासनकाल में ब्राह्मणों पर कुशाही कही जाने वाली एक विशेष कर भी लगाई गई थी।

**गोरखा शासन का अंत:**

गोरखा शासन का निर्दयी नियंत्रण 1816 में हुआ जब एंग्लो-नेपाल युद्ध के दौरान सिगौली के संधि के तहत। 4 मार्च 1816 को सिगौली की संधि से गोरखों से छुटकारा मिला, जो उत्तराखंड और भारतीय क्षेत्रों को मुक्त करा दिया।

**गोरखा शासन के दौरान महत्वपूर्ण जानकारी:**

इस रूप में, उत्तराखंड के गोरखा शासन का अध्याय समाप्त हुआ और गढ़ राज्य को दो हिस्सों में विभाजित किया गया, ब्रिटिश कुमाऊं-गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल।

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